पिछले कई दिनों से मैं देख रहा हूँ कि कोरोना को लेकर बहुत से लोग मोदी जी की आलोचना के लिए कमर कस चुके हैं. अगर यही लोग आगे आकर देश हित में कुछ सकारात्मक कार्य कर सकते है अगर वो भी नहीं होता तो चुप तो बैठ ही सकते है. आखिर उनको मोदी के खिलाफ बोलने से मिलता क्या है ? लोकतंत्र में विरोध की भी एक सीमा होती है और कोई उसको केवल अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करें तो वह भी एक देश द्रोह ही है.
क्या मोदी जी की जगह कोई और प्रधानमंत्री होता तो कोरोना चुटकी भर में खत्म हो जाता. ऐसा नहीं है और न ही ऐसा हो सकता. देखने में आया कि जो ग्राउइंड लेवल पर कुछ करते नहीं है वो इस बात का ठेका उठा चुके है कि मोदी का विरोध किया जाये, उन्होंने ये मान लिया कि मोदी जी ही कोरोना को बुलावा भेजते है. भारत के हर एक नागरिक का परम कर्तव्य है कि जब देश पर विपदा आये तो हम सब मिलकर उसके खिलाफ लड़े. केंद्र सरकारों का अपना-अपना कर्तव्य बनता है कि वो केंद्र पर बोझ बनने से पहले ही आने वाली आपदा से निपटने कि तैयारी रखे
देश के हर नागरिक का कर्तव्य बनता है कि वो इस लड़ाई में अपने स्तर पर कम से कम घर रहकर ही देश सेवा कर दे मगर हम नहीं कर पाए तभी ये भयावह मंजर हमारे सामने है. वैसे मोदी के पीछे पड़ने से तो कुछ बदलने वाला है नहीं. हमें खुद बदलना होगा. छोटे-छोटे प्रयास खुद करने होंगे. हरियाणा के बहुत से गाँव ऐसे है जहाँ छोटे-छोटे सहायता समूह लोगों की सेवा में लगे हुये है. प्रशासन भी इनको सहायता भेज रहा है और इन्होने अपने अपने स्तर पर भी प्रबंध किये हुए है. ऐसे कार्य सजगता और समाज के प्रति समर्पण का अनुपम उद्धरण भी है. अगर ऐसे सहायता समूहों को ग्रामीण स्तर की राजनीति से ऊपर उठकर सभी को विश्वास में लेकर बनाया जाये तो क्या मजाल की कोई भी समस्या का हल न हो.
राष्ट्रीय आपदा के समय कोई छोटा बड़ा नहीं है. हम सब एक है. जिससे जितना बने वो करें. नकारात्मक बातों का प्रचार कर अपनी राजनीति चमकाने वाले सोच ले कि अगला ग्रास आप भी हो सकते है. अगर कुछ बनता न दिखें तो कम से घर जरूरत बैठ जाये फालतू का ज्ञान न बांटे. देश इस समय एक बड़े संकट का मुकाबला कर रहा है. इस क्रम में व्यवस्था और सरकार की ओर से कई अच्छे काम किए जा रहे हैं. लेकिन जाहिर है कि सब कुछ बेहद शानदार नहीं है. इस बीच, सरकार और व्यवस्था की कई खामियां और लापरवाहियां भी सामने आई हैं. कई कदम ऐसे हैं, जिन्हें शायद पहले उठाया जाना चाहिए था या जिनके असर के बारे में गहनता से आकलन किया जाना उचित होता.
सवाल उठता है कि इस बारे में इंगित करने वालों को किस नजरिए से देखा जाए? बल्कि ये पूछा जाना चाहिए कि जो लोग सरकार की कमियों की ओर इशारा कर रहे हैं या सरकार की आलोचना कर रहे हैं, क्या उनका काम देश हित में है या ऐसा करना देश के हित के खिलाफ है? ये लोकतंत्र के एक बड़े सवाल से जुड़ता है कि विचारों के प्रतिपक्ष को किस नजरिए से देखा जाना चाहिए.ऐसे में जब तक कोई बड़ा संकट या आपदा न आ जाए, तब तक सरकार गफलत में रहती है कि सब कुछ ठीक चल रहा है. ये लोकतंत्र के लिए अच्छी स्थिति नहीं है क्योंकि पक्ष और विपक्ष की विचारधाराओं की अंतर्क्रियाओं से ही एक सुसंगत लोकतंत्र चल सकता है.
जरूरत इस बात की है कि सरकार कोरानावायरस से निपटने के क्रम में आलोचनाओं को धैर्य से सुने और किसी आलोचना में दम हो या वास्तविकता हो तो उसे अपनी नीतियों का हिस्सा बनाने पर विचार करे. बहरहाल, ये सब अब बीत चुका है और समय के चक्र को पीछे नहीं मोड़ा जा सकता है. लेकिन ये न भूलें कि कई विशेषज्ञ पहले ही बता रहे थे कि एक गंभीर समस्या देश में आई हुई है. उस समय सरकार ने उन बातों की परवाह नहीं की. अब ये नजरिया बदलना चाहिए और आलोचना को सकारात्मक नजरिए से देखा जाना चाहिए.
विपक्षी दलों को भी एक महागठबंधन बनाकर कोरोना के विरुद्ध युद्ध का बिगुल फूंकना चाहिए ताकि उनकी देश भक्ति रंग लाये. राज्य सरकारों को कुछ अलग करके दिखाना चाहिए ताकि बाकी राज्य उनको रोल मॉडल बना सके. आलोचना के साथ कुछ सकारात्मक भी तो कीजिये. मोदी विरोध के साथ अच्छा शोध भी तो जरुरी है. ✍ – डॉo सत्यवान सौरभ,